Friday 12 July 2019

साठ बसंत के बाद

वो पुराने मकान की कच्ची दीवार पर
टंगे हुए मटमैले आईने की धूल को
जब अपने हाथों से सहलाया तो
जिस शक्श की तस्वीर दिखाई दी
वो बड़ा जुदा जुदा सा लगा

ना बचपन की मासूमियत थी
ना लकड़पन की जिज्ञासाएं
ना जवानी की मदहोशियाँ थी
ना खुद से कोई आशाएं

खुद से खुद की परछाई भी
हिचकिचाकर यह पूछ रही थी
तुझमे और इस पुराने खंडर में
जरा सोच कर बता कौन बड़ा है

मैं आज भी अपने पैरों पर खड़ा हूँ
तू खड़ा होकर भी लड़खड़ा रहा है

किवाड़ के किनारों पर लगे जालों से भी
ज्यादा उलझी हुई तेरी ज़िंदगी हो गई है

टूटी हुई चौखट की निकलती हुई
खलपटों सी तेरी चमड़ी हो गई है

ताक पर रखा हुआ दिया
और दिये की सूखी हुई बाती
फिर रौशन होने की आस जताती

कुछ उम्मीद की किरणें छन कर आ रही थीं
रोशनदान से होते हुए मुझे ये बता रही थीं

कि तू आस है प्रयास है विश्वास है
तेरे अपनो का उन सपनों का
जो तुझसे ज्यादा उनमें हैं
तुझसे जुड़े हुए जो कुनबे हैं

मैं तनिक भरमाया फिर मुस्कुराया
आंखों में चमक के साथ
स्वयं में पुनः ये विश्वास जगाया

इस इमारत को फिर बनाऊंगा
गुलिस्ताँ को हाथों से सजाऊंगा
उम्मीदों की हस्ती को मिटने नहीं दूंगा
फूलों की बस्ती को लुटने नहीं दूंगा

देखते ही देखते शहर फिर बस गया
बाजार की रौनक में फिर फस गया
कुछ वक्त पहले जहां हर रात काली थी
आज उसी जगह हर रात दीवाली थी
आज उसी जगह हर रात दीवाली थी

~ राहुल मिश्रा ~

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